अगर न सुलझें उलझनें/सब ईश्वर पर छोड़। नित्य प्रार्थना कीजिये/ शांत चित्त कर जोड़।

Sunday, 14 September 2014

हिन्दी के सम्मान में


देवों से हमको मिला, संस्कृत का उपहार।
देवनागरी तब बनी, संस्कृति का आधार।
 
युग पुरुषों ने तो रचे, हिन्दी में बहु छंद।
पर नवयुग की पौध ने, किए कोश सब बंद।
 
वेद ऋचाओं का नहीं, हुआ उचित सम्मान।
हिन्द पुत्र भूले सभी, हिन्दी का रसपान।
 
जो हिन्दी के पक्षधर, किसे सुनाएँ पीर।
अपनों के ही हाथ से, टूटा है प्राचीर।
 
हिन्दी का कर थामकर, ‘कल ने जीती  जंग।
मगर आज पर छा गया, गुलामियों का रंग।
 
पहन विदेशी बेड़ियाँ, नौनिहाल खुश आज।
भाव विदेशी चूमते, खोकर अपना ताज।
 
आओ मिलकर हम करें, ऐसे ठोस प्रयास।
बीते युग की दासता, पुनः न आए पास। 
 
त्यागें मन से आज ही, अंग्रेज़ी का दंभ।
अडिग रहे हर हाल में, अब हिन्दी का स्तम्भ।
 
अंग्रेज़ी के नामपट, मेटें कालिख पोत।
द्वार द्वार जगमग जले, हिन्दी की ही ज्योत।
 
हिन्दी की हों लोरियाँ, हिन्दी के ही गीत। 
भागी हो वो दंड का, जो ना माने रीत।
 
हट जाए बाजार से आयातित साहित्य,
कोने कोने में दिखे, हिन्दी का अधिपत्य।
 
प्रथम फर्ज़ है बंधुओं, हिन्दी का उत्थान।
क्यों भूली इस बात को, भारत की संतान।
 
हिन्दी के सम्मान में, लिखें अनगिने गीत।
जागे ज्यों जन चेतना, वरण करें वो रीत।
 
मना रहे हिन्दी दिवस, अब तक हम हर साल।
कट जाए इस साल में,  अंग्रेजी का जाल

-कल्पना रामानी   

3 comments:

शिव राज शर्मा said...
This comment has been removed by the author.
शिव राज शर्मा said...

बहुत सुन्दर दोहे । एक से बढ़कर एक

कल्पना रामानी said...

हार्दिक धन्यवाद आ॰ शर्मा जी

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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