
टिके हुए हैं सत्य पर, धरती औ’ आकाश।
पर
झूठों का जूथ ये, बात
समझता काश!
हमने
खुद ही झूठ को, पहनाया
है ताज।
हम
ही ला सकते पुनः, सच
का खोया राज।
हम
ही हैं जो झूठ की, पल
पल लेते ओट।
फिर
चाहे देता रहे, हर
पल मन को चोट।
किससे
करें शिकायतें, जब
खुद जिम्मेदार।
शीश
नवाया झूठ को, दोषी
क्यों करतार।
जप
करता जो झूठ का, कितना
वो नादान।
क्षणिक
भोग ले सुख मगर, खो
देता सम्मान।
कलमें
ही लिखती रहीं, सिर्फ
सत्य की बात।
जब
लाएँ व्यवहार में, सुख
की हो बरसात।
जय
बोले जो सत्य की, सज्जन
वो इंसान।
इसीलिए
मनु, ‘कल्पना’, सच कहने की
ठान।
-कल्पना रामानी