छन्न पकैया, छन्न पकैया, दिन कैसे ये आए।
देख आधुनिक कविताई को, छंद,गीत मुरझाए।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, गर्दिश में हैं तारे।
रचना में कुछ भाव न चाहे, वाह, वाह के नारे।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, घटी काव्य की कीमत।
विद्वानों को वोट न मिलते, मूढ़ों को है बहुमत।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, भ्रमित हुआ मन लखकर।
सुंदरतम की छाप लगी है, हर कविता संग्रह पर।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, कविता किसे पढ़ाएँ।
हर पाठक की सोच यही है, कुछ लिख, कवि कहलाएँ।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, रचें किसलिए कविता।
रचना चाहे ‘खास’ न छपती, छपते ‘खास’ रचयिता।
छन्न पकैया, छन्न पकैया, अब जो ‘तुलसी’ होते।
भंग छंद की देख तपस्या, सौ-सौ आँसू रोते।
-कल्पना रामानी
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