उच्च हिमालय पार कर, मैदानों की ओर।
चली मुग्ध भागीरथी, होकर भाव विभोर।
गो मुख से निकली चली, वेगमई अविराम।
धरती पर हरिद्वार में, मिला उसे विश्राम।
गंगा से ही विश्व में, भारत की पहचान।
लाखों जन जुटते यहाँ, करते पावन स्नान।
सलिला पाप विनाशिनी, करती रोग निदान।
दुख हरणी,सुख दायिनी, देती जीवन दान।
आए जो इस बार हम, गंगा माँ के द्वार।
कहीं नहीं हमको दिखी, इसकी निर्मल धार।
रोग मुक्त सबको किया, रोगी हो गई आप।
दूषित खुद होने लगी, धोते धोते पाप।
गंगा मैली हो चली, कहिए दोषी कौन।
चुप चुप है सरकार भी, जनता भी है मौन।
जज़्बा है गर शेष कुछ, शेष अगर अनुराग।
वैतरणी को तार दे, जाग मनुष अब जाग।
क्या समझाए लेखनी, बाँट रही जज़्बात।
बात कहे यह कल्पना, करें न माँ पर घात।
-कल्पना रामानी
1 comment:
wah wah wah
Post a Comment