ढाई
अक्षर प्रेम के, गूढ
मगर है सार।
एक
शब्द की नींव पर, टिका
हुआ संसार।
प्रेम
तृप्ति का रूप है, प्रेम
अधूरी प्यास।
इसके
मालिक आप हैं, आप
इसीके दास।
प्रेम
न माँगे सम्पदा, और न
माँगे भोग।
जग
बैरी उसके लिए, जिसे
प्रेम का रोग।
प्रेम
अनोखी अगन है, हिय
सुलगे दिन रात।
स्वयं
पतंगा जल मरे, समझ
न आए बात।
प्रेम
न माने नीतियाँ, और न
रीति रिवाज।
प्रेमी
का होता सदा, एक
नया अंदाज़।
यह
तप है, यह ताप भी, जैसा भाए रूप।
एक
मनस को छाँव दे, दूजा
दे कटु धूप।
प्रेम
जयी होगा तभी, जब
ना माने हार।
जंग
छेड़कर प्रेम से, जीतें
सच्चा प्यार।
देखी
हमने प्रेम की, जग
में ऐसी रीत।
देकर
पाने की ललक, रखते
सारे मीत।
हर
मन चाहे प्रेम का, यथा
योग्य प्रतिदान।
मगर
त्याग से “कल्पना”, बनता प्रेम
महान।
-कल्पना रामानी
4 comments:
बहुत खूब! कल्पना जी,
प्रेम-पुष्प उपहार है अनूठा और अनूप।
इसमें न कोई न दीन है और नहीं कोई भूप।।
बहुत बढियां
Shaandaar
Ati. Sunder. Abhivykti
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