अगर न सुलझें उलझनें/सब ईश्वर पर छोड़। नित्य प्रार्थना कीजिये/ शांत चित्त कर जोड़।

Saturday 21 July 2012

ढाई अक्षर प्रेम के

 
ढाई अक्षर प्रेम के, गूढ मगर है सार।
एक शब्द की नींव पर, टिका हुआ संसार।

प्रेम तृप्ति का रूप है, प्रेम अधूरी प्यास।
इसके मालिक आप हैं, आप इसीके दास।

प्रेम न माँगे सम्पदा, और न माँगे भोग।
जग बैरी उसके लिए, जिसे प्रेम का रोग।

प्रेम अनोखी अगन है, हिय सुलगे दिन रात।
स्वयं पतंगा जल मरे, समझ न आए बात।

प्रेम न माने नीतियाँ, और न रीति रिवाज। 
प्रेमी का होता सदा, एक नया अंदाज़।

यह तप है, यह ताप भी, जैसा भाए रूप।
एक मनस को छाँव दे, दूजा दे कटु धूप।  

प्रेम जयी होगा तभी, जब ना माने हार।
जंग छेड़कर प्रेम से, जीतें सच्चा प्यार।

देखी हमने प्रेम की, जग में ऐसी रीत।
देकर पाने की ललक, रखते सारे मीत।

हर मन चाहे प्रेम का, यथा योग्य प्रतिदान।
मगर त्याग से कल्पना”, बनता प्रेम महान।
 


-कल्पना रामानी

4 comments:

sharda monga (aroma) said...

बहुत खूब! कल्पना जी,

प्रेम-पुष्प उपहार है अनूठा और अनूप।
इसमें न कोई न दीन है और नहीं कोई भूप।।

कल्याणी झा said...

बहुत बढियां

Unknown said...

Shaandaar

anuaetia said...

Ati. Sunder. Abhivykti

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

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