छंद रचे दोहे रचे, रचे अनगिनत गीत।
मगर हुए सब हाशिये, मन भाया नवगीत।
अंचल-अंचल से घुली, मोहक मधुर सुंगंध।
बोलों में नवगीत के, बसी गाँव की गंध।
भोलापन औ सरलता, सुख दुख की तस्वीर।
नवगीतों से झाँकती, ग्राम्य जनों की पीर।
नवगीतों की तान में, बसे करुण उद्गार।
झंकृत करते हृदय को, ज्यों वीणा के तार।
घुलता जब नवगीत में, प्रेम रसों का घोल।
खो जाता मन बावरा, सुन सुन मीठे बोल।
छोटे होते गाँव पर, बड़ी दिलों में प्रीत।
अपनापन गहरा वहाँ, जहां बसे नवगीत।
देख छटाएँ शाम की, सुखमय सुंदर भोर।
बंजारा मन बढ़ चला, नवगीतों की ओर।
-कल्पना रामानी
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