जब से आए शहर में,लेकर धन का रोग
यहाँ अकेले हो गए, खोए खोए लोग।
हालत शहरों की दिखी, गाँवों से बदहाल
घर ऐसे ज्यों घोंसले, सड़कें उलझा जाल। सब पाने की होड़ में, दौड़े बेबुनियाद
क्या पाया क्या खो दिया, अब न रहा वो याद।
-कल्पना रामानी
अगर न सुलझें उलझनें/सब ईश्वर पर छोड़। नित्य प्रार्थना कीजिये/ शांत चित्त कर जोड़।
आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।
धन्यवाद सहित
--कल्पना रामानी
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