हवा विषैली हो चली, चलो विहग उस गाँव
जहाँ स्वच्छ आकाश हो, सुखद घनेरी छाँव।
भूख बढ़ी है शहर में , पड़ने लगा अकाल
क्या खाओगे तुम, तुम्हें खा जाएगा काल।
राहें हैं दुर्गम बड़ी, मगर न टूटे आस
भर लो कोमल पंख में, एक नया उल्लास।
पेड़ खड़े दिखते नहीं, कट कट हुए निढाल
नया नीड़ तुम देख लो, अब माई के लाल।
त्याग मोह की माँद को, बढ़ जाओ उस ओर
जहाँ सुरमई शाम हो, स्वर्णिम शीतल भोर।
खोना नहीं जिजीविषा, बना रहे विश्वास
निकलेगा सूरज नया, होगा फिर मधुमास।
पंख तुम्हारे पास हैं, होना नहीं निराश।
उड़ जा लेकर चोंच में, यह सारा आकाश।
-कल्पना रामानी
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